-यशोधरा यादव "यशो"
ओ अलि छोड़ो ये आलिंगन
बाँधो ना मुझसे ये बंधन
देख प्रकृति की छटा मनोहर
जोड़ सकूँ मैं टूटे बन्धन।
देखो वृक्षों की शाखायें
पूर्ण तृप्त हो नाच रही हैं
देखो काँसों के झुंडों में
शसक जोड़ियाँ खेल रही हैं
कई दिनों से भूखे पक्षी
खाकर भोजन करते गुंजन।
पहली किरण सूर्य की फूटी
सजग हुई स्मृतियाँ टूटी
पोर-पोर चमका वसुधा का
वह रिमझिम बरसात भी टूटी
और किया है आज सूर्य ने
आकर के धरणी का चुम्बन ।
जन-जन हर्षित और प्रफुल्लित
होता है मेरा मन मुकलित
देख छटा मन सिहर उठा है
एक सपन हो उठा सचलित
फिर से चला काम पर मानव
जैसे जाता था दिन प्रतिदिन ।
आज प्रकृति के इन भावों ने
कैसे मुझको बाँध रखा है
पर न टूटी घुटन हृदय की
बहु विधि से इसको परखा है
आओ तोड़ें दर्द घुटन को
नई प्रीति का करे सृजन ।
-यशोधरा यादव "यशो"
बहुत सुन्दर कविता है
ReplyDeletevery nice poem
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